लड़की से औरत बनने की प्रक्रिया एक महत्वपूर्ण विकास की यात्रा होती है लेकिन कुछ लड़कियों के जीवन में ये यात्रा आती ही नही उन्हें सीधा मंजिल के पड़ाव पर ही रुक कर अचानक पता चलता है की वो औरत बन चुकी हैं या उन्हें समाज में मन लिया गया है | स्त्रियों के साथ ये विडम्बना शुरू से ही रही है की समाज की स्वीकृति या चलन को ही अपना धर्माचरण मानना पड़ता है अपना स्त्रीत्व मानना पड़ता है और इन्होने इस अदृश्य शासन की कीमत अपनी आज़ादी से चुकाई है जिसमे सोचने, बोलने, चुनने और सुने जाने की आज़ादी भी शामिल है |

पहला पड़ाव
बचपन में, जब एक लड़की खिलखिलाती हुई खुले आकाश में उड़ने की कल्पना करती है, उसके पैरों में घरेलू ज़िम्मेदारियों की बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं। खेलने के समय में उससे उम्मीद की जाती है कि वह बर्तन उठाए, रसोई में हाथ बंटाए और घर के छोटे-मोटे काम सीखे। इन छोटे-छोटे कर्तव्यों के माध्यम से उसे यह सिखाया जाता है कि उसका भविष्य एक गृहिणी के रूप में तय है। उसके सपने और उसकी पहचान, धीरे-धीरे एक ‘अच्छी लड़की’ की परिभाषा में सिमट जाते हैं।
दूसरा पड़ाव : स्त्री निर्माण
जैसे-जैसे वह किशोरावस्था की दहलीज़ पर कदम रखती है, उसकी ज़िम्मेदारियाँ और बढ़ जाती हैं। उसे अब परिवार की मर्यादा और प्रतिष्ठा का प्रतीक मान लिया जाता है। उसके हर कदम, हर शब्द पर समाज की नजरें होती हैं, मानो उसकी स्वतंत्रता का हर पल परीक्षण हो रहा हो। वह भावनात्मक द्वंद्व में जीती है—एक ओर उसे खुद के सपने बुलाते हैं, और दूसरी ओर समाज के नियम और अपेक्षाएँ उसे अपने घेरे में कसते जाते हैं।
तीसरा पड़ाव : विद्रोह और पतन
युवावस्था में आते-आते, जब एक लड़की अपने व्यक्तित्व की खोज में होती है, उसकी ज़िंदगी में विवाह का दबाव प्रवेश कर जाता है। एक ओर वह अपने करियर और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ना चाहती है, दूसरी ओर उस पर परिवार और समाज की ओर से एक नई भूमिका—एक पत्नी, एक बहू, और जल्द ही एक माँ—की अपेक्षाएँ थोप दी जाती हैं। विवाह के बाद, वह एक नया जीवन शुरू करती है, जिसमें न केवल उसके पति की, बल्कि ससुराल के हर सदस्य की उम्मीदों का बोझ भी उस पर होता है।
चौथा पड़ाव : अंतिम घात और समर्पण
मातृत्व की जिम्मेदारी उसके जीवन को और भी गहराई में ले जाती है। एक माँ के रूप में, उसकी भावनाएँ हर क्षण अपने बच्चों के भविष्य और उनके कल्याण के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। उसकी रातें जागरण में और दिन दूसरों की सेवा में बीतते हैं। उसकी इच्छाएँ और सपने जैसे दूर, किसी धुंधले कोने में छिप जाते हैं, जहाँ उसकी आवाज़ शायद ही सुनाई देती हो। वह जीवन के हर मोड़ पर, हर रिश्ते में अपने अस्तित्व को त्याग कर दूसरों के लिए जीती है।
ये लीजिये बना दी गयी औरत …
साहित्य में ऐसी महिलाएँ अक्सर उन नायिकाओं की तरह होती हैं, जिनकी भावनाएँ और संघर्ष समाज की जकड़नों में बंधे होते हैं। वे अपने आंतरिक संसार की गहराई में जीती हैं, जहाँ उनकी खामोशियाँ भी उनके आत्मबल का प्रतीक बन जाती हैं। उनकी आँखों में छिपा हुआ त्याग, प्रेम और समर्पण, समाज की कठोरता के बावजूद उनकी शक्ति का प्रमाण है।
यह ज़िम्मेदारियों का सफर एक ऐसी भावनात्मक यात्रा है, जो न केवल महिलाओं के जीवन को आकार देती है, बल्कि उनके भीतर अदम्य साहस, सहनशीलता और आत्म-संयम का निर्माण करती है।